उज्ज्वल आत्मा
पांच दिनों के बाद गांव वापस आते हुए हरनंद ने गांव से रथ
पर आते हुए पंडित श्रीहरि को देखा तो मन में गांव का समाचार जानने की इच्छा बलवती
हो गई। पास आते ही बोला- ‘पंडितजी पांव लागूं।
सुखी रहो - आशीर्वाद देते हुए श्रीहरि ने उसका कुशल-क्षेम पूछा।
कच्चे गोहर में दोनों ने प्रेमपूर्वक एक-दूसरे को निहारा ।
हरनंद ने गांव के समाचार जानना चाहे।
उत्तर में श्रीहरि ने केवल इतना ही कहा कि गांव के सब लोग आनंद में हैं। हर
परिवार सुखी है।
फिर हरनंद ने पूछा,- दादा आज कहां
चले ? प्रश्नवाचक उसकी निगाह श्रीहरि के देदीप्यमान चेहरे पर
प्रांजल माथे के नीचे तरल, पानीदार व चमकती अनुभवी काली आंखों में खो गई। मधुर शान्त
वाणी में श्रीहरि बोला- अरे भाई, जीवन एक यात्रा है। तुम यात्रा से आ रहे हो और मैं यात्रा पर चल दिया हूँ।
दोनों राम-राम कह कर परस्पर विरोधी दिशाओं की ओर आगे बढ़
गए ।
हरनंद बामुश्किल एक कोस-भर अपने गांव की ओर चला होगा, तभी उसने गांव से एक साथ बहुत सारे लोगों को उसी तरफ आते
हुए देखा। पंडित श्रीहरि तो बता रहा था कि गांव के सब लोग आनंद में हैं। हर परिवार
सुखी है। फिर गांव से एक साथ इतने सारे आदमी बाहर क्यों आ रहे हैं ?
उसके
मन का शान्त भाव न जाने कहां खो गया। मन में इस भाव संचार के आते ही उसके कदम
अपने गांव की तरफ उठने में भारी पड़ने लगे। वहां से मात्र दो किल्ले की दूरी पर रास्ते
के साथ लगता शमशान था। शमशान का ध्यान आते ही वह समझ गया कि कोई प्रभु को प्यारा
हो गया ।
अब तक
सामने से आने वाला जन समूह काफी नजदीक आ गया था। उसके आगे बढ़ने के साथ-साथ दोनों
का अन्तर घटता जा रहा था ।
राम नाम सत है, सत है
तो गत है – ग्रामवासियों का ये स्वर-नाद अब स्पष्ट
सुनाई दे रहा था । वह नजदीक आता गया और हरनंद का शमशान में प्रवेश उन लोगों के साथ
ही साथ हुआ।
पूछने पर पता चला पंडित श्रीहरि ब्रह्मलीन हो
गए हैं। उसके परिवारजनों का गमगीन होना स्वाभाविक था पर उसके पांचवें पुत्र को
पितृ-शोक बाकी सब से ज्यादह महसूस हो रहा था क्योंकि स्वर्गारोहण से दो दिन
पहले श्रीहरि ने कुछ धार्मिक बातों की जानकारी देने के बाद कर्मानुसार देह त्याग
कैसे-कैसे होते हैं- यह भी बताया था । उसने विद्यानंद को खुद के बारे में बताया था
कि उसकी आत्मा जब शरीर से जाएगी तो नवद्वारों के बजाय दशम द्वार से जाएगी यानि
सहस्रार क्रियाशील होगा । ऐसी स्थिति बहुत कम लोगों को प्राप्त होती है ।
उधर हरनंद
के आश्चर्य का तो ठिकाना ही नहीं था । अभी आधा घण्टा पहले जिस आदमी से उसकी
मुलाकात हुई थी, बात भी हुई थी, उसी
के अन्तिम संस्कार के लिए इतने आदमियों का शमशान में आना उसके मर जाने का यकीन
दिलाने का कम प्रमाण है क्या ?
क्या
मौत के बाद भी आदमी के शरीर से निकली आत्मा उसके शरीर के साथ ही यात्रा कर सकती
है ? शरीर और आत्मा में अलगाव के बाद यह
समन्वय कैसा ? जिस आदमी के मृत शरीर को कुछ
समय पहले गांव से शमशान में ले जाने की तैयारी हो रही थी वही आदमी सशरीर उसी समय
गांव से करीब डेढ कोस की दूरी पर हरनंद से बात कर रहा था। पर यह कैसे हो सकता है ? क्या
प्राणान्त के बाद कुछ समय आत्मा और शरीर दो अलग-अलग स्थानों पर एक साथ और अलग
भी रह सकते हैं ? ऐसे ही प्रश्न उसे बहुत गहरे
तक झिंझोड़े जा रहे थे।
केवल छयालीस
बरस की आयु में सांसारिक यात्रा पूरी करने वाले पंडित श्रीहरि ने कितने सहज भाव से
उसे कहा कि जीवन एक यात्रा है। तुम अपनी यात्रा से वापस आ रहे हो और मैं यात्रा पर
चल दिया हूँ।
क्या
इस पंचभौतिक शरीर को छोड़कर ही यात्रा पर जाने की बात वह इतनी सहजता से कह रहा था ? क्या
मृत्यु का भय उसे था ही नहीं ? क्या उसके
लिए रिश्तेदारी में जाकर आना और जीवन जी कर जग से प्रयाण करना- दोनों ही सम बातें
थीं ? क्या हरनंद से उसका कोई विशेष लगाव था
?
यदि
उसकी विचारशक्ति के निर्णय के अनुसार हरनंद और उसकी – दोनों
की यात्राओं में कोई भेद नहीं है तो निश्चय ही उसे समझाने के निमित्त एकान्त
में अपनी एकाग्रता को आलोडित करना होगा। इस गहरे भेद को जानने का सार्थक प्रयास
करना ही होगा।
आज तक
ऐसे कितने श्रीहरि हो चुके होंगे कौन जाने ? क्या
कठोपनिषद के पात्र नचिकेत के मानस पटल पर कोई ऐसा ही पट खोलने का झोंका आहट करने
आया था ?
मृत्यु
तथा जीवन के इस उलझनपूर्ण रहस्य को समझ सकना या समझा जाना कैसा लगता होगा ? इस रहस्य
में ऐसा क्या भेद है कि धर्मराज दुनिया की कीमती से कीमती वस्तुएं नचिकेत को
देने को तत्पर थे पर उस राज को खुलासा करना नहीं चाहते थे ? यह
यक्ष-प्रश्न कब तक अबूझ पहेली बना रहेगा ?
अब तक
चिता तैयार की जा चुकी थी। गाय के कण्डे और पावन लकड़ी पर मृत देह को पैर दक्षिण
में करके रख दिया गया था । उस पर देसी घी डालने के उपरांत पंचरत्न एवं मुखाग्नि
दी गई। और देखते ही देखते चिता की अग्नि ने प्रचण्ड रूप धारण कर लिया। जलते मांस
की दुर्गंध आनी लगी थी । पंडित श्रीहरि के ज्येष्ठ पुत्र ने अर्थी के बांस से दक्षिणाभिमुख
हो कर कपाल–क्रिया की और चिता के ऊपर से उसे
दक्षिण दिशा की ओर फैंक दिया ।
संस्कार हेतु आए लोग जलती चिता की परिक्रमा
करके प्रणाम करते हुए प्रस्थान करने लगे । प्रत्येक व्यक्ति की जुबॉं पर मरने
वाले के सदगुणों का बखान था। अब सब की निगाहें अश्रुओं से भरी थी। आधे से अधिक लोग
चाहते हुए भी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे क्योंकि उनमें से अधिकांश हरनंद
की तरह के ही थे और कभी न कभी गांव के प्रत्येक आदमी के कानों तक पंडित श्रीहरि
के मुखारविन्द से नि:सृत अमृतवाणी अवश्य पहुंची थी।
शमशान
में घृत से प्रज्जवलित अग्नि की धपकती ज्वाला ने एक और शरीर को अपने आगोश में
ले लिया जिससे निकल कर जाने वाली आत्मा एक ऐसी चैतन्य आत्मा थी जिसने अपना
पुराना चोला उतारने पर भी हरनंद के संसारी मन का झरोखा । प्रेममयी वाणी से उसका
अंतर्मन खोल दिया। क्या ऐसी आत्मा ही कहलाती है एक उज्ज्वल आत्मा ?
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