Sunday, 23 June 2013

कर्म एवं कर्मफल

कर्म एवं कर्मफल

कर्म करने के मामले में मानव पूर्णत: स्वतंत्र है परन्तु कर्मफल भोगने में परतंत्र है। इस बात को ध्‍यान में रखते हुए ज्ञानी और विवेकशील व्‍यक्ति अपने शुभकर्म अनवरत जारी रखता है और दुराचारी  इस तथ्‍य से अनभिज्ञ होते हुए अपने पाप-कर्मों को  बढाता रहता है । जागरूक आदमी अन्‍य लोगों को सलाह देता है कि ऐसे ही कर्म करो जिनका फल उत्तम हो । चारित्रिक मर्यादा का अनुपालन होना चाहिए ताकि जब कर्म के कर्मफल की बात आए तो व्‍यथित होने का कोई कारण ही न बचे ।
चोरी करने में चोर स्वतंत्र है परन्तु किए गए चौर्य-कर्म का फल देना तो न्यायालय के अधीन है, उसके खुद के हाथ में नहीं है । न्‍यायालय द्वारा कानून और निर्धारित नियमानुसार जितनी सजा दी जाएगी, उसको भोगना ही पड़ेगा, चाहे चोर की इच्छा हो या न हो। कहा उगया है - जैसा बोवोगे वैसा काटोगे । या यों कहिए- बोया पेड बबूल का तो आम कहां से खाय । फिल्‍मी अंदाज में बात करें तो- बुरे काम का बुरा नतीजा, क्‍यों भई चाचा, हां भतीजा ।
      मनुष्य जैसा चाहे वैसा कर्म कर सकता है। वह पुण्‍य कर्मों को करके स्वर्गादि लोकों में जाकर दिव्य भोगों को भोग सकता है या पाप कर्म करके गरूड पुराण में वर्णित रौरव आदि महाभयंकर दुःखदायी नरक को प्राप्त हो सकता है। धर्मशास्‍त्रों में बताई गई चौरासी लक्ष योनियों में से मात्र मनुष्य-योनि ही है जिसे कर्म-योनि के नाम से अभिहित किया गया है। यहाँ मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है अर्थात् वह जैसा कर्म करना चाहे कर सकता है।
मनुष्य चाहे तो योग इत्‍यादि के माध्‍यम से सत्‍कर्म करते हुए कुण्‍डलिनी जागृत करके साक्षात् सर्वंशक्तिमान परमपिता सच्चिदानन्द परमात्मा से एकाकार  कर सकता है। वह जो कर्म करता है उसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है। कोई कर्म मनुष्य कर ले और यह चाह रखे कि उसका फल न भोगना पड़े,  ये तो कभी हो ही नहीं सकता। शास्‍त्र-वाक्‍य है कि - 'धर्मेंण पापमपनुदति'  अर्थात धर्म करने से पाप नष्ट होता है। यदि किसी से कभी कोई पाप-कर्म हो जाए और वह दूषित कर्मफल से बचना चाहता है,  तो उसे चाहि कि उस पाप-कर्म को नष्ट करने के लि पुण्य कार्य करे।  जैसे-जैसे पुण्य कार्य बढता जागा वैसे-वैसे उसका पापकर्म तथा तत्‍जनित कर्मफल कम होता जागा, दबता जाएगा
 शास्‍त्रवचन है - 'जपतो नास्ति पातकम्' इसका अर्थ है कि भगवन्नाम मंत्र का जप-सुमिरन करने से पाप नष्ट होता है। इसलिए यदि किसी के द्वारा वर्तमान समय तक कोई या कुछ अविहिताचरण और पाप - कर्म अधिक हो गए हैं या किए गए हैं और वह उन समस्त पापों से छुटकारा  चाहता है, मुक्ति पाना चाहता है तो वह तत्‍काल पुण्य-कर्म करने प्रारंभ करदे । श्रद्धा-भक्ति पूर्वक अपने इष्‍ट/भगवान् के नाम (मन्त्र, स्‍तोत्र, चालीसा इत्‍यादि ) का जप करने लग जाए। भावपूर्वक ऐसा करने से धीरे - धीरे उसके पिछले समस्‍त पाप नष्ट हो जायँगेऔर कुछ समय बाद उस शुभ प्रयास का शुभ फल संचित होने लगेगा जो क्रमश: बढता जाएगा ।
अनिच्छा से या अज्ञानतावश भी यदि प्रभु स्मरण किया जा, तो भी पापों का नाश होता है। जैसे बिना इच्छा के भी यदि अग्नि अथवा जल स्‍पर्श करता है तो जलन अथवा शीतलता का तुरंत आभास होता है। अग्नि का स्वभाव है कि संपर्क में आने वाले पदार्थ को जला दे और जल शीतलता प्रदान करदे,  इसी प्रकार भगवान् का स्वभाव है कि जिसने उनका स्मरण किया उसके पापों को वे नष्ट कर देते हैं।
प्रधानता है हमारे मन की जोकि जन्म - जन्मान्तरों का बिगड़ा हुआ  है,  इसलिये भगवान् के प्रति प्रेम बनाने में कठिनाई तो आएगी ही, पर मलिन व दूषित मन से भी यदि भगवान् का चिन्तन किया जागा तो भी करूणानि‍धान भगवान् की कृपा प्राप्त होगी। इसमें एक बात यह समझने की है कि मन पहले से चाहे जितना दूषित हो, पहले का चाहे कितना भी दुराचारी व पापाचारी हो, उसकी परवाह नहीं।  खुद को सुधारने का भाव जागे तो सही । भाव जागेगा तो उसमें शुद्धता भी आएगी । मन भी निर्मल होने लगेगा ।
सिद्ध गुरूओं के आशीर्वाद और निर्देश से भावों में  शुद्धता और मन में निर्मलता जल्‍दी आ जाती है । गुरू वैसे भी अपने शुद्ध एवं शुभ कर्मों के तपोबल द्वारा शिष्‍यों के पापकर्मों को काटने का सामर्थ्‍य रखते हैं । कई बार वे मेहरबान होकर अनेकों के पाप के फन्‍दे एक झटके में काट डालते हैं । सवाल दुष्‍कर्म की जड़ तक जाने का भी है । दुष्‍कर्म या पापकर्म क्‍यों हुआ या किया गया, उसके मूल कारण को जान समझ कर ही उसका तोड़ निकाला जाए तो मुक्ति का मार्ग ढूंढना आसान हो जाता है ।
कुछ लोगों को समझा-बुझा कर सत्‍कर्मों के लिए प्रेरित किया जा सकता है, सबको तो नहीं । अच्‍छाई के मार्ग के पथिक अपनी ओर से ऐसे प्रयत्‍न निरंतर जारी रखते हैं । इसलिए साधु की संगत सदा सुखदाई बताई गई है ।
गीता में भगवान श्रीकृष्‍ण तो अर्जुन को केवल कर्म करने की बात कहते हैं, कर्म पर ही अधिकार होने की बात करते हैं । अर्जुन को उनका उपदेश केवल कर्मार्थ है, फलार्थ नहीं । वे स्‍पष्‍ट कहते हैं मा फलेषु कदाचन:। फल की इच्‍छा मत करो । कभी भी ना करो । गांडीवधारी अर्जुन के माध्‍यम से ये वाणी उस गुरू की है जो समस्‍त सांसारिक क्रियाओं से परे है । संसार सागर में तैरते हुए मक्‍खन जैसा है । ऐसा गुरू जिसे पाने का सौभाग्‍य मिल जाए उसके तो कर्मों का पूरा जंजाल ही नष्‍ट जाएगा फिर वे कर्म कैसे भी क्‍यों न हों। और तब न तो कर्म बचेगा और न ही फल ।                 

  
दिनांक 30.05.2013                          पं. सुरेश कुमार कौशिक                                                                                         




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