विवाह की वैदिक परम्परा
और सप्तसदी
भारतवर्ष में मान्य
आठ प्रकार की विवाह परम्पराओं में से श्रेष्ठ है वैदिक विवाह परम्परा और सप्तपदी
उसका एक अभिन्न अंग है । इसके बिना प्रणयबंधन पूरा नहीं माना जाता । पाणिग्रहण
संस्कार भले ही हो जाए लेकिन जब तक सप्तपदी पूरी नहीं होती तब तक वर और कन्या परस्पर पति-पत्नी नहीं बन
सकते और न ही परणोत्सव सम्पन्न माना जा सकता है। अत: सप्तपदी विवाह-वेला में विशेष
रुप से समझने योग्य कर्म है । वैदिक विवाह पद्धति के ऋग्वेद और अथर्ववेद प्रमुख आधार
हैं । ऋग्वेद के दसवें मंडल का 85वां सूक्त विवाह सूक्त है तथा
अथर्ववेद के 14वें कांड का पहला
सूक्त भी
विवाह सूक्त
ही है। सुविज्ञजनों, ऋषियों, मुनियों तथा आचार्यों ने इन के आधार पर ही
वैदिक विवाह पद्धति तैयार की है। वैदिक विवाह उभय-पक्ष की सहर्ष सहमति से, नाते-रिश्तेदारों, मित्रों और प्रियजनों की आनंदमयी उपस्थिति में, वरिष्ठजनों एवं गुरूजनों
के मंगलकारी शुभ आशीर्वाद से सम्पन्न होता है और देवी-देवता इसके साक्षी माने जाते
हैं। इसलिए इसे सर्वश्रेष्ठ माना गया है और यही कारण है कि सप्तपदी को सनातन धर्म
में सात जन्मों का बंधन भी माना गया है ।
अहंकार रहित होकर विनम्र
भाव के साथ भरे-पूरे समाज के सम्मुख कन्या को बार-बार देवि शब्द से संबोधित करते
हुए ( ऐसा संबोधन समस्त संसार में केवलमात्र भारतीय वैदिक परम्परा में ही उपलब्ध
है) क्रमानुसार सात पदों में वर कहता है –
1. हे देवि ! तुम संपत्ति तथा ऐश्वर्य, दैनिक खाद्य-पदार्थों और पेय वस्तुओं की
प्राप्ति के लिए प्रथम पग बढ़ाओ, सदा मेरे अनूकूल गति करने वाली ( चलने वाली) रहो, भगवान विष्णु
तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे
में हमारा सहारा बनें ।।
2. हे देवी ! तुम
त्रिविध बल तथा पराक्रम की प्राप्ति के लिए दूसरा पग बढ़ाओ । सदा मेरे अनूकूल
गति करने वाली ( चलने वाली) रहो । भगवान विष्णु तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें
श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे में हमारा सहारा बनें ।।
3. हे देवि ! धन
संपत्ति की वृद्धि के लिए तुम तीसरा पग बढ़ाओ, सदा मेरे अनूकूल गति करने वाली ( चलने वाली) रहो । भगवान विष्णु
तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे
में हमारा सहारा बनें ।।
4. हे देवि ! तुम
आरोग्य शरीर और सुख-लाभवर्धक धन संपत्ति के भोग की शक्ति के लिए चौथा पग
आगे बढ़ाओ और सदा मेरे अनुकूल गति करने वाली ( चलने वाली) रहो भगवान विष्णु तुम्हें इस व्रत
में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे में हमारा सहारा
बनें ।।
5. हे देवि ! तुम घर में पाले जाने
वाले पांच पशुओं ( गाय, भैंस, बकरी, हाथी और घोड़ा आधुनिक
संदर्भ में वाहन इत्यादि) के पालन और रक्षा के लिए पांचवा पग आगे बढ़ाओ और सदा
मेरे अनुकूल गति करने वाली ( चलने वाली) रहो भगवान विष्णु तुम्हें इस व्रत में दृढ़
करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे में हमारा सहारा बनें ।।
6. हे देवि ! तुम 6 ऋतुओं के अनुसार
यज्ञ आदि और विभिन्न पर्व मनाने के लिए और ऋतुओं के अनुकूल खान-पान के लिए (अखाद्य
खाद्यं न करने की भावना रखते हुए) छठा पग आगे बढ़ाओ और सदा मेरे अनुकूल गति करने
वाली ( चलने वाली) रहो
भगवान विष्णु तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त
करें जो बुढापे में हमारा सहारा बनें ।।
7. हे देवि ! जीवन का सच्चा
साथी बनने के लिए तुम सातवां पग आगे बढ़ाओ और सदा मेरे अनुकूल गति करने वाली ( चलने वाली) रहो
भगवान विष्णु तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त
करें जो बुढापे में हमारा सहारा बनें ।।
भारतीय विवाह पद्धति में अत्यंत
सरल भाषा में इन सातों पदों का उल्लेख निम्नवत्
किया गया गया है –
- अन्नादिक धन पाने
के हित, चरण उठा तू प्रथम
प्रिये ।।
- और दूसरा बल पाने को, जिससे जीवन सुखी
जियें
।।
- धन पोषण को पाने के हित, चरण तीसरा आगे धर ।।
- चौथा चरण बढ़ा तू देवि, सुख से अपने घर को
भर ।।
- पंचम चरण उठाने से, तू पशुओं की भी स्वामिनी
बन ।।
- छठा चरण ऋतुओं से प्रेरक बनकर हर्षित कर दे मन ।।
- और सातवां चरण मित्रता के हित आज उठाओ तुम ।।
मेरा जीवन व्रत अपनाओ, घर को स्वर्ग बनाओ तुम ।।
"यावत्कन्या
न वामांगी तावत्कन्या कुमारिका" अर्थात जब तक कन्या वर के वामांग की
अधिकारिणी नहीं होती उसे कुमारी ही कहा जाता है। सप्तपदी पूरी होने
के बाद कन्या को वर के वामांग में आने का निमंत्रण दिया जाता है ।
वामांगी बनने से
पहले कन्या भी वर से सात वचन लेती है जो इस प्रकार हैं –
- तीर्थ, व्रत, उद्यापन, यज्ञ, दान यदि मेरे साथ
करोगे तो मैं तुम्हारे वाम अंग आऊंगी ।
- यदि देवों का हव्य, पितृजनों को कव्य
मुझे संग लेकर करोगे तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आऊंगी ।
- परिजन, पशुधन का पालन-रक्षण का भार यदि आपको है स्वीकार
तो मैं हूं वामांग में आने को तैयार । - आय-व्यय, धन-धान्य में मुझ
से यदि करोगे विचार, तो मैं वाम अंग में आने को तैयार ।
- मंदिर, बाग -तड़ाग या कूप का कर निर्माण पूजोगे, यदि तो मुझे वामांगी निज जान ।
- देश-विदेश में तुम क्रय विक्रय की जानकारी मुझे भी देते रहोगे तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आऊंगी ।
- मंदिर, बाग -तड़ाग या कूप का कर निर्माण पूजोगे, यदि तो मुझे वामांगी निज जान ।
- देश-विदेश में तुम क्रय विक्रय की जानकारी मुझे भी देते रहोगे तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आऊंगी ।
- सुनो सातवीं शर्त यह, नहीं करोगे पर-नारी का संग, तो आऊंगी निश्चय ही स्वामी आपके वाम अंग ।
कन्या के इन सात
वचनों के उत्तर में आश्वासन देते हुए वर कहता है-
- तुम अपने चित्त
को मेरे चित्त के अनूकूल करलो, मेरे कहे अनुसार चलना और मेरे धन को भोगना । पतिव्रता बन कर
रहना, मैं भी तुम्हारे
सारे वचन निभाऊंगा, तुम गृह स्वामिनी
बनकर सारे सुख भोगना ।
वर एक बार फिर
कन्या से पुन: वचन लेता है –
मेरी आज्ञा के
बिना, न सोमपान न उद्यान । पितृघर हो या कहीं और, मुझको अपना मान ।।
जाओगी यदि तुम नहीं, बन कर मम अनूकूल । पतिव्रता बन न करो, मुझ से कुछ प्रतिकूल ।।
वामांगी तब ही तुम्हे मैं मानूंगा हे कल्याणी । इसमें ही हित अपना जानना, नहीं तो है निश्चित हानि ।।
जाओगी यदि तुम नहीं, बन कर मम अनूकूल । पतिव्रता बन न करो, मुझ से कुछ प्रतिकूल ।।
वामांगी तब ही तुम्हे मैं मानूंगा हे कल्याणी । इसमें ही हित अपना जानना, नहीं तो है निश्चित हानि ।।
सप्तपदी की ये वचनबद्धता दोनों
को विनम्र, धर्यशील, विश्वासनीय तथा संतुलित तो बनाती ही है, सुचारू गृहस्थी चलाने के लिए स्वाभाविक रूप से
अनिवार्य एवं प्रेरणाप्रद भी है। इसके बाद दोनों परस्पर सखा बन जाते हैं । दोनों के द्वारा दिए गए वचनों के अनुपालन की शर्त
को पुख्ता करने के लिए धुव्र तारे के दर्शन कराए जाते हैं । धुव्र तारा अपनी अटल
भक्ति और दृढ़ निश्यच के लिए जाना जाता है ।
वधु को धुव्र तारा
दिखाता हुआ वर कहता है – तुम धुव्र तारे
को देखो । वधु ध्रुव तारे को देख कर कहती है - जैसे ध्रुव तारा अपनी परिधि में स्थिर एवं
तटस्थ रहता है वैसे ही मैं भी अपने पति के घर में कुल परम्परा के अनुसार स्थिर
रहूंगी । उसके बाद वर वधु
को अरूंधती तारा दिखा कर कहता है- हे वधु अरूंधती तारे को देखो । वधु अंरूधति तारे
को देख कर कहती है- हे अरूंधती जिस तरह तू सदा वशिष्ठ(नत्रक्ष) की परिचर्या में
संलग्न रहती हो इसी प्रकार मैं भी अपने पति की सेवा में संलग्न रहूं, संतानवती होकर सौ
वर्ष तक अपने पति के साथ सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करूं । तदुपरांत सबसे रोचक रस्म
की बारी वर अपने दाएं हाथ से वधु के हृदय को स्पर्श करते हुए
कहता हैं
- मैं
तुम्हारे हृदय को अपने कर्मों के अनुकूल बनाता/करता हूं । मेरे चित्त के
अनुकूल तुम्हारा चित्त हो(जाए)। मेरे कथन को एकाग्रचित होकर सुनना, प्रजा का पालन करने वाले ब्रह्मा जी ने तुम्हें मेरे लिए नियुक्त किया है।
ऋग्वेद में वर्णित
है कि वर एवं वधु दोनों विवाह के समय भगवान से समवेत स्वर में एक प्रार्थना करते
हैं
- "विश्व के सृजनहार(
ब्रह्माजी),
पालनहार(विष्णुजी), संहारकर्ता(आदिदेव महादेव) अपनी-अपनी शक्ति से
और विवाह मंडप में विराजमान देवता और अन्य विद्वान और वरिष्ठगण अपने शुभ-आशीष से
हमारी (वर-वधु की) आत्माओं और हृदयों का एकीकरण इस प्रकार कर दें जैसे दो नदियों अथवा
नदी और समुद्र का जल परस्पर मिल कर एक हो जाता है और संगम होने के उपरांत विश्व की
कोई शक्ति उन्हें अलग नहीं कर सकती, इसी
प्रकार हम दोनों भी आत्मा और हृदय से एक हो जाएं ।"
हमारी प्राचीन गौरवमयी
संस्कृति में हज़ारों साल पहले यानि वैदिक काल से ही नर-नारी को बराबरी का
अधिकार था । विवाह का एक-एक वचन दोनों को बराबरी के दर्जे की बात करता है, बल्कि वर वधु को अपना सर्वस्व दे रहा है ।
समता पर आधारित इस मामले के कारण गृहस्थ धर्म को श्रेष्ठ आश्रम माना गया है ।
विवाह केवल दो शरीरों का मिलन नहीं है। यह दो आत्माओं, दो परिवारों का
समायोजन है । सनातन संस्कृति के महत्वपूर्ण 16 संस्कारों में यह विशिष्ट संस्कार है जिसे दो
आत्माओं का आध्यात्मिक मिलन माना गया है ।
इस परम्परा में भले
ही वर-कन्या दोनों को बराबरी का दर्जा दिया गया है परंतु वरण का अंतिम अधिकार
कन्या को ही दिया गया है। स्वयंवर प्रथा का आधार यही मान्यता रही है । सप्तपदी
के बाद वर-कन्या दोनों सखा बन जाते हैं। दुनिया की अन्य किसी भी विवाह पद्धति
में ऐसा बराबर का रिश्ता नहीं है।
वैशाख शुक्ल प्रतिपदा, संवत 2070.
दिनांक 10.05.2013
पंडित सुरेश कुमार कौशिक
No comments:
Post a Comment