टेलीपैथी
किसी स्थान पर जाए बिना वहां के बारे में कुछ या बहुत कुछ बता
देना या किसी आदमी से बिना मिले अपनी बात उस तक पहुंचा
देना, यह कोई जादू या चमत्कार नहीं है, बल्कि एक विधा
है, एक विद्या है जिसे
टेलीपैथी कहा जाता है। इसे दूरसंपर्क, दूरानुभूति, देर-संवेदन, यौगिक पद्धति तथा
पारेंद्रियज्ञान आदि नामों से जाना जाता है ।
टेलीपैथी परा-मनोविज्ञान की एक शाखा है। इसका मतलब है दूर
रहकर आपसी भावों, विचारों, उदगारों, आदेशों, प्रार्थनाओं, भावनाओं, संवेदनाओं, सूचनाओं, अनुभवों और जिज्ञासाओं का
बगैर किसी भौतिक साधन को उपयोग किए पूर्णत: आदान-प्रदान करना । इसमें भौतिक कुछ भी
नहीं है । यह एक ऐसी मानसिक तकनीक है जो नाप
रहित अथाह दूरियों के बावजूद व्यक्ति विशेष के मानस में उपजे भावों को इच्छित व्यक्ति
या लक्ष्य तक तत्काल पहुंचा देती है। इसमें न समय लगता है, न ही कुछ खर्च
होता है। यह न तो दूरभाष सक किया गया वार्तालाप है और न ही सम्मोहन विद्या का प्रयोग
है ।
इसे वैज्ञानिकों द्वारा अभी विज्ञान की कसौटी पर कसा जा रहा
है। इस पर अनेक देशों में निरंतर शोधकार्य किए जा रहे हैं। अब तक जो शोध किए गए हैं, उनमें
शोधकर्ताओं को काफी सकारात्मक परिणाम भी मिले हैं।
ऐसा माना जाता है कि टेलीपैथी शब्द का सबसे पहले इस्तेमाल 1882 में फैड्रिक डब्लू.एच.मायर्स(1843-1901) ने किया था। इंग्लैंड के रैडिंग विश्वविद्यालय के प्रोफैसर आफ साइबरनेटिक
मिस्टर कैविन वारविक (Kevin
Warwick) का शोध इसी विषय पर है कि किस तरह एक व्यावहारिक और सुरक्षित उपकरण तैयार किया जाए जो
मानव के
स्नायु-तंत्र को कंप्यूटरों से और परस्पर
एक-दूसरे से जोड़ सके ।
टेलीपैथी दो व्यक्तियों के बीच किया जाने वाला एक मानसिक तथा
भावनात्मक आदान-प्रदान है जिसमें उनकी आयु, गुण, धर्म, रंग, शिक्षा, देश आदि की समता का मेल होना अनिवार्य नहीं है। यहां तक कि
भाषा भी दोनों की अलग हो सकती हैं । दोनों व्यक्तियों अथवा आत्माओं में परस्पर आत्मीयता
जितनी अधिक होगी मानसिक दूर-सम्पर्क से विचार सम्प्रेषण उतना ही सशक्त, स्पष्ट, सरल और प्रभावशाली
होगा । इसमें देखने, सुनने, सूंघने, छूने और चखने की शक्ति का कतई इस्तेमाल नहीं होता । व्यक्ति की ये पांचों कर्मेन्द्रियां इसमें कोई काम नहीं करती, परंतु जिस आदमी
के पास छठी इंद्री यानि ज्ञानेंद्रिय जागृत होती है वह जान लेता है कि दूसरों के मन में क्या चल रहा है। वह औरों के मन
को पढने में सक्षम हो जाता है । तब वह इस विधि का उपयोग अधिक आत्म-विश्वास के साथ
तथा अधिक प्रभावशाली ढंग से कर सकता है ।
जिज्ञासु इंसानों को लगातार अभ्यास करने पर इसे जानने, समझने का अवसर
मिलता है । इस विद्या को मन लगाकर सीखना
पड़ता है जबकि खग-जानवर आदि जीव-जन्तुओं में यह अदभुत विद्या जन्मजात ही पाई जाती है।
कुछ प्राणी तो इस विद्या में प्रवीणता प्राप्त होते हैं । इसके साथ-साथ आपदाओं या
घटनाओं का पूर्वाभास भी उन्हें होने लगता है । पशुओं में गाय, कछुआ, घोडा, बिल्ली, कुत्ता, बंदर, हाथी और कई प्रकार के पक्षी इस विद्या के जानकार होने के नाते
भूकम्प आदि प्राकृतिक आपदाओं से अनेक बार मनुष्यों का जीवन बचा चुके हैं। ऐसे अनेकानेक
वृतांत इतिहास में पन्नों में दर्ज हैं।
टेलीपैथी भारतवासियों के लिए कोई खास बात या ज्ञान की नई विधा
नहीं है । प्राचीन काल में इसके अनेक उदाहरण भारतीय दर्शनग्रंथों में उपलब्ध हैं।
इतना ही नहीं वे पूर्णत: सहज, सरल एवं स्पष्ट भी हैं । वैदिक काल में ऋषि-मुनियों द्वारा इस विद्या का प्रयोग करना
एक सामान्य-सी बात थी । नारदमुनि, आदि शंकराचार्य तथा अन्य बहुत से भारतीय गुरूओं से जुडे अनेक
उदाहरण भारतीय दर्शनग्रंथों में उपलब्ध हैं । ऐसा ही
उदाहरण रामायण में भी देखने को मिलता है। सीता की खोज करने का वचन देकर जब सुग्रीव अपना वचन निभाने में कुछ शिथिल पड जाता है, तब यह विचार
राम के मन में खेद उत्पन्न करता है। ठीक
उसी समय हनुमान के मन में भी वही भाव संप्रेषित हो जाता है और हनुमान तत्काल राम का विचार सुग्रीव तक पहुंचा देते हैं।
भक्त और भगवान अथवा गुरू और शिष्यों के मध्य वार्तालाप अनेक
बार इस विद्या के द्वारा ही होता था । आध्यात्मिक गुरूओं की तो यह विद्या धरोवर रही
है । क्रियायोग, शिवयोग, ध्यानयोग, राजयोग, भक्तियोग, प्रेमयोग में से कोई भी ऐसा नहीं जिसमें टेलीपैथी काम न करती
हो । कई बार दूर-दृष्टि और टेलीपैथी दोनों एक से लगते हैं और दोनों में कोई भेद नहीं
लगता परंतु ऐसा है नहीं । दूर-दृष्टि भविष्य में झांकने की विधा है जबकि टेलीपैथी
परस्पर दूर बैठे दो व्यक्तियों में बिना किसी भैतिक साधन या खर्च के एक खास वैचारिक-मंत्रणा
या बातचीत है ।
केवल जीवित व्यक्ति से ही नहीं, गर्भस्थ बालक
से भी इस पद्धति के माध्यम से वार्ता की सकती है । स्वामी योगानन्द(05.01.1893-07.03.1952)
ने काशी नामक एक बालक की मृत्यु के उपरांत उसका पुनर्जन्म होने से पूर्व ही उसका
पता लगाने के लिए इसका उपयोग किया था तथा काशी के जन्म के बाद स्वयं जाकर उसे देखा
भी था । इसका विवरण उन्होंने अपनी पुस्तक आटोबायग्राफी आफ ए योगी के 28वें अघ्याय में किया है ।
दिनांक 23.05.2013, वैशाख शुक्ला त्रयोदशी सुरेश कुमार कौशिक
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