Wednesday 29 May 2013

लाल मुर्गा

सूर्यास्‍त के समय अचानक बढा उमस का आधिपत्‍य दो घण्‍टे बाद कुछ कम हुआ। वेदु नहाने के लिए उठ कर स्‍नानागार की तरफ बढा ही था, तभी द्वार-घंटी बजने लगी और उसके साथ ही घर में गायत्री मंत्र की स्‍वर लहरी भी गूंज उठी । गुसलखाने की बजाय वेदु मुख्‍य द्वार की तरफ मुडा और दरवाजे की चिटकनी नीचे सरकाकर किवाड खोलने लगा । अधखुले किवाड से उसने देखा सामने विद्या के साथ एक आदमी और भी खडा था ।
उन दोनों ने मुस्‍कराते हुए हाथ जोडकर *नमस्‍ते गुरूजी* बोला तो वेदु ने *हरि ऊं* कह कर एक गहरा सांस लिया । दरवाजा खोल कर वापस अंदर आते हुए बोला अंदर आ जाओ । सुखासन में दीवान पर बैठते हुए उत्‍तराभिमुख कुर्सियों की तरफ बायां हाथ करके उसने दोनों को बैठने का इशारा किया । विद्या दीवान के साथ लगती कुर्सी पर विराजमान हो गया और उसके पीछे-पीछे कमरे में प्रवेश करने वाला आदमी उसके साथ रखी दूसरी कुर्सी पर ऐसे पसर गया मानों घंटाभर दौड कर आया हो। उत्‍सुकताभरी नजरों से वेदु ने विद्या के नेत्रों में झांका ।
झांकने का प्रयोजन समझ विद्या ने अपने साथी का परिचय कराते वक्‍त कहा- गुरूजी, ये सरदार सिंह है, जहां पहले मैं काम करता था वहीं काम करता है, करीब एक साल से यह बडा दु:खी तथा परेशान है ।
उसने एक लम्‍बा सांस लिया और वह उम्‍मीदभरी आंखों से अपलक वेदु को देखने लगा।
       वेदु तब तक कम्‍प्‍यूटर आन कर चुका था । पी.एल.6.1 पर डबल क्लिक किया और प्रश्‍न चार्ट के लिए तत्‍काल समय फीड करके इंटर मारा । कम्‍प्‍यूटर की स्‍क्रीन पर अब प्रश्‍न कुण्‍डली उसके सामने थी । लग्‍नेश दूषित था । उस पर दृष्टि डालने वाले दूषित शनि को देखा जोकि वृश्चिक नवांश में निधनांशायुक्‍त: था । उसने अपने पच्‍चीस वर्षीय अनुभव का लाभ उठाया । बोला उबड़-खाबड़ जमीन का मामला है और पैसा गया खड़डे में ।
सरदार सिंह की आंखों में आश्‍चर्य से चमक जाग उठी । उसने तुरंत हामी भरी । उसकी मोटी काली आंखों में लगातार चमक उभरने लगी । एकदम सचेत-सा हुआ। उसे लगा कुछ तो बात बनेगी ।
हाथ जोड़ कर बोला गुरुजी, मेरे पर मेहर करो । मैं तो बरबाद हुआ पड़ा हूं । जमा धरती में हाथ लग गए । कहते वक्‍त उसका गला रुंध आया और आंखें भर आई ।
वेदु समझ गया कि उसकी पूरी बात सुने बिना उसे प्रोत्‍साहित नहीं किया जा सकता । उससे बोला सरदार सिंह, पूरी बात बताओ कि क्‍या हुआ और कैसे हुआ ।  
       आंसू गटकते हुए उसने कहना शुरू किया गरीबी में फटेहाल हम तीन दोस्‍तों ने अपने बुरे दिन दूर करने के लिए कई काम एक साथ शुरू किए पर सब के सब बेकार ही साबित हुए । इसी उधेडबुन में एक दिन एक बाबा से मुलाकात हुई । रोमू, मैं और कुलबीर हम तीनों दोस्‍त एक साथ थे । बाबा बोला- एक साथ रह कर काम करोगे तो तीनों की गरीबी दूर हो सकती है ।
कुलबीर ने हाथ जोड कर पूछा हमें क्‍या करना होगा और कैसे, बताओ बाबा । हम तीनों मिलकर एक साथ ही काम करेंगे, बस गरीबी से किसी तरह पीछा छूट जाए। बहुत दु:ख देख चुके हैं अब तक । मेहरबानी करो बाबा । रोमू भी अपने दयनीय हालातों का रोना रोने लगा तथा मैं भी । तीनों रूंधे गले एवं आशाभरी निगाहों से बाबा के चेहरे को ताकने लगे ।
       बाबा के शांत चेहरे पर दया के भाव उभरने लगे । हम तीनों एकदम स्थिर और मौन हो गए थे । एकाग्रतापूर्ण मनोवेग से तीनों की नजरें बाबा के मुख-मुण्‍डल पर टिक गई ।                          बाबा दृढतापूर्वक बोला अब मैं जो कहता हूं उसे घ्‍यान से सनो । कल दोपहर को एक जवान लालमुर्गा लेकर आओं । उसके माध्‍यम से तुम्‍हारा भाग्‍य बदल सकता है । अब जाओ ।
बाबा का धन्‍यवाद करते हुए तीनों मित्र उठे और मन में आशा संजोए चले गए । एक साथ मीट मण्‍डी गए । कई ठिकानों पर देखने के बाद एक कसाई के यहां उन्‍होंने एक स्‍वस्‍थ जवान मुर्गा पसंद किया । उसकी उमर पूछी । मोल-भाव तय किया । साई के तौर पर कुछ पैसे उसके मालिक को देकर अगले दिन सुबह मुर्गा ले जाने की कही तथा उसके बाद अपने-अपने घरों को निकल गए । अगले रोज तीनों उसी कसाई के यहां मिले । उसका हिसाब नक्‍की किया । मुर्गा लिया । करोडों की लाटरी की तरह संभाल कर उसे बाबा के पास ले गए । तब तक सूरज भी सिर पर चढ आया था ।
       तीनों बाबा के इर्द-गिर्द पैतालीस, नब्‍बे और पैंतालीस डिग्री पर बैठ गए। चारों ओर से मुर्गे को बीच में लेकर उसे बाबा के सामने खडा कर दिया ।
बाबा ने आखें बंद करके कुछ बुदबुदाना शुरू किया और सा‍थ-साथ उसके सिर पर अपना हाथ फेरना चालू किया । रोमू ने इशारे से बताया कि बाबा कोई मंत्र पढ रहा है ।
सुर्ख मुर्गे के सिर पर हाथ फेरते-फेरते कुछ देर बाद बाबा आंखें बन्‍द रखते हुए कहने लगा - इसे ले जाकर कहीं भी छोड दो । करीब आधे घण्‍टे के बाद जहां ये मुर्गा बैठेगा, वहां नीचे खजाना दबा हुआ मिलेगा । वह जमीन जिस किसी की भी हो, खरीद कर कुआं के रूप में खुदवाई का काम शुरू करवाओ । खुदाई सोलह फुट होने के बाद एक चितकबरा सांप निकलेगा । उससे किसी तरह की कोई भी छेडखानी मत करना । हाथ जोडकर भगवान का ध्‍यान करना । दो मिनट के अंदर-अंदर वह खुद-बखुद चला जाएगा । कहां गया ये नहीं जान पाओगे । फिर चार फुट और खुदाई के बाद उत्‍तर दिशा की ओर एक दरवाजा दिखाई देगा जिस पर एक जंगखाया रोपडिया ताला लगा हुआ मिलेगा । दरवाजे के आगे की सारी मिटटी हटाए बिना दरवाजा खुलने या टूटने वाला नहीं है । ताले को तोडकर दरवाजा अंदर की तरफ खुलेगा और वहीं पर खजाना मिलेगा । यह घ्‍यान रखना एक या दो आदमी उसे नहीं निकाल सकते, तीन ही आदमी निकाल सकते हैं ।
आंखें गडाए तीनों सुनते जा रहे थे । फिर बाबा चुप हो गया । तीनों ने एक साथ बाबा के हाथ से मुर्गा पकड लिया ।
सरदार ने आगे कहा - कुछ खास बातों का गंभीरता से विचार करके नेशनल हाईवे नम्‍बर 22 पर आकर हमने मुर्गा छोड दिया । मेन रोड से पूर्व की दिशा में दो किल्‍ले पार करके मुर्गा तीसरे किल्‍ले में इधर-उधर कुछ देर चक्‍कर काटने के बाद एक स्‍थान पर बैठ गया। हमने वहीं पर उसको पकड़ा और उस खास जगह पर मिट्टी के दो तीन ढेले और आस-पास से ढूंढकर तीन चार ईंट के टुकड़े रख दिए। हमने उस जमीन के मालिक के बारे में पता किया तथा उसके बदले में कहीं और उससे महंगे दाम पर उतनी ही जमीन दिलाने का वादा किया। रोमू और कुलबीर ने जमीन की खरीद के लिए पैसे का इन्‍तजाम करने के मामले में मदद करने से साफ मना कर दिया। मेरे मन में अपनी कंगाली के दृश्‍यों के नक्‍शे और बड़े-बड़े होने लगे । मैंने अपनी पत्‍नी और मां के सारे जेवर बेच डाले परंतु अब भी पैसे कम पड़ रहे थे। मैंने अपने दोस्‍तों से फिर मुलाकात की और बाबा से हुई सारी बात एक बार उनको समझायी तो वे इस शर्त पर तैयार हुए कि वे दोनों खर्च होने वाली राशि का केवल 25 प्रतशित भी मुश्किल से जुटा सकेंगे परंतु उन्‍हें बराबर का हिस्‍सा चाहिए । मरता क्‍या ना करता । मैं तैयार हो गया ।
सडक के साथ वाले पहले वाले एक किल्‍ले का मालिक कोई और था जिसे खरीदना हमारी मजबूरी थी। उसका स्‍वामी सामान्‍य से डयोढे दाम पर हमें जमीन बेचने को तैयार हुआ । उसके लिए मुझे बैंक से अपना घर गिरवी रख कर लोन लेना पडा । कुल मिलाकर वह विशेष जमीन खरीद ली गई तथा स्‍थान विशेष पर बाबा के बताए अनुसार कुंआ खोदने का काम मशीन के माध्‍यम से शुरू कर दिया ।
खुदाई के काम में हम तीनों ने बराबर खर्च और समय दिया। बाबा के कहे अनुसार सोलह फुट का कुंआ खुदने के बाद जब हम तीनों उसके अन्‍दर थे, अचानक एक सांप निकल आया जिसकी लम्‍बाई लगभग छ: फुट थी और मोटाई हमारी बाजू जैसी। उसे देखकर एक बार तो तीनों का डर के मारे रंग उड़ गया। जैसे ही हमें बाबा की बात याद आई हम तीनों जहां-जहां थे वहां के वहां खड़े हो गए और हाथ जोड़कर अपने-अपने ईष्‍ट को याद करने लगे। उसकी शक्‍ल, लंबाई और फुफकार से भयभीत हम तीनों ने आंखे बन्‍द कर ली थी । मुश्किल से एक मिनट बीता होगा हमने आंखें खोलकर देखा तो बाबा की कही हुई बात सच निकली और सांप वहां से गायब था । हमारी जान में जान आई और सबने एक-दूसरे को प्रसन्‍नतापूर्वक देखा और तीनों आपस में गले मिले। हमारी योजना का एक बड़ा हिस्‍सा पूरा और सही हो चुका था परंतु तब तक कुंए में गहरा अन्‍धेरा छा गया था। हम लोग रस्‍से के सहारे बाहर निकले और अपने-अपने घरों को चले गए।
       अगले दिन आगे काम शुरू किया गया और दो दिन की जद्दोजहद के बाद चार फुट की खुदाई पूरी हुई, तभी उत्‍तर की दिशा में एक पत्‍थर की चौखट और उसके मध्‍य में चैन वाले कुंडे पर जंगखाया हुआ एक रोपडिया ताला नजर आया।
हम तीनों ने एक-दूसरे की ओर देखा और ताले पर जमीं हुई मिट्टी उतारी। सबके मन में खुशी की लहर सी दौड़ गई। यहां तक बाबा की कही हुई बात सही साबित हुई। अब पूरे दरवाजे के सामने से मिट्टी हटाने के लिए और खुदाई करनी बाकी थी।
अगले तीन दिनों में हम तीनों ने खूब मेहनत की और जैसे-तैसे पूरे दरवाजे के सामने से मिट्टी हटाने और निकालने में कामयाब हो गए। इतना होने पर हमने ऊपर आकाश की ओर देखा तो आकाश में टिमटिमाते हुए तारे जोर-शोर से चमक रहे थे, मानों हमारी खुशी में शामिल हो रहे हों। हम तीनों ने एक-दूसरे को उस दिन तक प्राप्‍त की गई सफलता पर बधाई दी और अधिक रात हो जाने के कारण शेष कार्य अगले दिन करने का निर्णय लिया।
घने अंधकार में कुंए से बाहर निकलकर अंधेरे को चीरते हुए हम लोग इस वायदे के साथ अपने-अपने घरों को रवाना हुए कि अगली सुबह तीनों एक-साथ ही आएंगे जैसे उस दिन तक आते रहे थे।
       उस रात एक अजीब-सी खुशी पाने की भावना से भरे होने के कारण मैं सो नहीं सका। बार-बार मन में विचार उठता रहा कि कुंए से हमें कुल कितना खजाना मिलेगा और उसमें से खर्च की रकम निकालकर मेरे हिस्‍से में कितना आएगा तथा उससे मैं भविष्‍य में क्‍या-क्‍या करूंगा। अनेक सुखद ख्‍वाबों की एक लम्‍बी फेहरिस्‍त बनती जा रही थी । ऐसे ही ख्‍यालों में भोर का तारा दिखाई देने लगा। और दिनों की अपेक्षा उस दिन नाश्‍ता करने की भी इच्‍छा नहीं थी। मन एक अजीब-सी खुशी से भरा जा रहा था।
        सरदार अपनी व्‍यथा-कथा कहे जा रहा था । पहले के दिनों की तरह उस दिन भी दोनों साथी सूर्योदय से पहले मेरे पास आए। रोज की ही तरह अकेले-अकेले ही उनका आना हुआ। उन दोनों के चेहरों पर भी मेरी ही तरह खुशी थी और उनकी आंखों में भी मेरी तरह रातभर जागने का आलस और धन प्राप्ति की चमक दिखाई दे रही थी। हम तीनों एक साथ कुंए पर पहुंचे वहां जाकर रस्‍से के सहारे कुंए में उतरे तो जो दृश्‍य हमने देखा उसने हमारी सारी खुशियां उड़ा दीं। रोपडिया ताला कुंए की दीवार के पास टूटा पड़ा था और दरवाजा कुंए की अन्‍दर की बजाय जहां वह खड़ा था उससे अन्‍दर की तरफ टूटा हुआ पड़ा था। जहां बाबा ने खजाना होने की बात कही थी वहां मौजूद पुराने मटके के ठीकरे हमारी तौहीन कर रहे थे। हमारे हाथों के तोते उड़ गए क्‍योंकि खजाना तो वहां से गायब था। हम तीनों ने अविश्‍वास की नजर से एक-दूसरे को देखा और एक-दूसरे को अपराधी भाव से गालियां देनी शुरू कर दी।
        तीनों ने भगवान की सौंगध खाकर परस्‍पर आश्‍वासन दिया कि उनमें से भी कोई वहां तक नहीं आया था । क्‍योंकि हम तीनों के अतिरिक्‍त किसी को इस मामले में कोई जानकारी नहीं थी इसलिए किसी ओर द्वारा धन निकालकर ले जाने की बात भी हम में से किसी के गले के नीचे नहीं उतर रही थी। काफी देर बाद आपस में गाली-गलौच और तू-तड़क करने के बाद हम तीनों इस निर्णय पर पहुंचे कि आपस में झगडने की बजाय क्‍यों न हम तीनों उक साथ बाबा के पास जाएं और उससे ही पता लगाएं।
       वहां से सीधे तीनों दोस्‍त बाबा के पास पहुंचे। बाबा पहले दिन की तरह उस दिन भी अकेला ही बैठा था। हम तीनों ने बाबा को प्रणाम किया और उसके सामने जमीन पर बैठने लगे। बाबा हमारी उतरी हुई शक्‍ल देखकर समझ गया कि गड़बड़ है। हमने बाबा को सारी कहानी बताई बाबा चुपचाप हमारी बात सुनता रहा । जब हम तीनों अपना दुखड़ा रो चुके तो बाबा ने मुंह खोला।
बाबा के चेहरे पर क्रोध साफ दिखाई दे रहा था। बाबा बोला- तुम दुष्‍टों में से किसने विश्‍वासघात किया है, यह मैं नहीं बताऊंगा और आइन्‍दा कभी मेरे पास नहीं आना। उसने मुंह फेर लिया । उसने कोई बात करने से भी मना कर दिया ।
उसके बाद हम तीनों में आपस में बैरभाव बहुत बढ़ता चला गया । तीनों एक-दूसरे की जान लेने पर आमादा हैं। क्‍योंकि पहले जैसा व्‍यवहार नहीं रहा इसलिए बाबा भी इस मामले में अब कुछ नहीं बोलता।
थोडा-सा रुक कर उसने दो तीन लम्‍बे सांस खींचे । फिर बोला- मेरे विचार से मामला तब ही ठीक हो सकता है जब हम तीनों आपस में मित्रभाव से  बैठकर बात करें और फिर से एक बार उस बाबा की शरण में जाएं तथा बाबा नाराजगी छोड़कर शान्‍त भाव से हमारी बात सुनकर अपना निर्णय तीनों के सामने सुनाए।
       वेदु और विद्या ने सरदार सिंह की पूरी कहानी इतमिनान से सुनी। वेदु ने उसे पूछा- मुझसे क्‍या उम्‍मीद रखते हो।
उसने कहा- आप कोई ऐसा उपाय बता दें जिससे हम सबके मन का मैल धुल जाए और वह बाबा आशीर्वाद का हाथ हमारे सिर पर रख दे।
वेदु ने तन्‍मयता और संयम सहित गायत्री मंत्र का जाप करने और काली गाय को नियमित गुड़ खिलाने की सलाह दी।
वे दोनों वेदु को प्रणाम करके चले गए और सरदार सिंह अब तक वापस नहीं आया । आपकी तरह वेदु भी जानने का इच्‍छुक है कि सरदार सिंह एक बार सामने आकर बताए तो सही कि उपाय कितना असरदार रहा । 


दिनांक 14.05.2013                                               सुरेश कुमार कौशिक
टेलीपैथी

किसी स्‍थान पर जाए बिना वहां के बारे में कुछ या बहुत कुछ बता देना या किसी आदमी से बिना मिले अपनी बात उस तक पहुंचा देना, यह कोई जादू या चमत्कार नहीं है, बल्कि एक विधा है, एक विद्या है जिसे टेलीपैथी कहा जाता है। इसे दूरसंपर्क, दूरानुभूति, देर-संवेदन, यौगिक पद्धति तथा पारेंद्रियज्ञान आदि नामों से जाना जाता है ।
टेलीपैथी परा-मनोविज्ञान की एक शाखा है। इसका मतलब है दूर रहकर आपसी भावों, विचारों, उदगारों, आदेशों, प्रार्थनाओं, भावनाओं, संवेदनाओं, सूचनाओं, अनुभवों और जिज्ञासाओं का बगैर किसी भौतिक साधन को उपयोग किए पूर्णत: आदान-प्रदान करना । इसमें भौतिक कुछ भी नहीं है । यह एक ऐसी मानसिक तकनीक है जो नाप रहित अथाह दूरियों के बावजूद व्‍यक्ति विशेष के मानस में उपजे भावों को इच्छित व्‍यक्ति या लक्ष्य तक तत्‍काल पहुंचा देती है। इसमें न समय लगता है, न ही कुछ खर्च होता है। यह न तो दूरभाष सक किया गया वार्तालाप है और न ही सम्‍मोहन विद्या का प्रयोग है ।
इसे वैज्ञानिकों द्वारा अभी विज्ञान की कसौटी पर कसा जा रहा है। इस पर अनेक देशों में निरंतर शोधकार्य किए जा रहे हैं। अब तक जो शोध किए गए हैं, उनमें शोधकर्ताओं को काफी सकारात्मक परिणाम भी मिले हैं।
ऐसा माना जाता है कि टेलीपैथी शब्द का सबसे पहले इस्तेमाल 1882 में फैड्रिक डब्लू.एच.मायर्स(1843-1901) ने किया था। इंग्लैंड के रैडिंग विश्वविद्यालय के प्रोफैसर आफ साइबरनेटिक मिस्‍टर कैविन वारविक (Kevin Warwick) का शोध इसी विषय पर है कि किस तरह एक व्यावहारिक और सुरक्षित उपकरण तैयार किया जाए जो मानव के स्‍नायु-तंत्र को कंप्यूटरों से और परस्‍पर एक-दूसरे से जोड़ सके ।
टेलीपैथी दो व्यक्तियों के बीच किया जाने वाला एक मानसिक तथा भावनात्‍मक आदान-प्रदान है जिसमें उनकी आयु, गुण, धर्म, रंग, शिक्षा, देश आदि की समता का मेल होना अनिवार्य नहीं है। यहां तक कि भाषा भी दोनों की अलग हो सकती हैं । दोनों व्‍यक्तियों अथवा आत्‍माओं में परस्‍पर आत्‍मीयता जितनी अधिक होगी मानसिक दूर-सम्‍पर्क से विचार सम्‍प्रेषण उतना ही सशक्‍त, स्‍पष्‍ट, सरल और प्रभावशाली होगा । इसमें देखने, सुनने, सूंघने, छूने और चखने की शक्ति का कतई इस्तेमाल नहीं होता । व्यक्ति की ये पांचों कर्मेन्द्रियां इसमें कोई काम नहीं करती, परंतु जिस आदमी के पास छठी इंद्री यानि ज्ञानेंद्रिय जागृत होती है वह जान लेता है कि दूसरों के मन में क्या चल रहा है। वह औरों के मन को पढने में सक्षम हो जाता है । तब वह इस विधि का उपयोग अधिक आत्‍म-विश्‍वास के साथ तथा अधिक प्रभावशाली ढंग से कर सकता है ।
जिज्ञासु इंसानों को लगातार अभ्‍यास करने पर इसे जानने, समझने का अवसर मिलता है । इस विद्या को मन लगाकर सीखना पड़ता है जबकि खग-जानवर आदि जीव-जन्तुओं में यह अदभुत विद्या जन्मजात ही पाई जाती है। कुछ प्राणी तो इस विद्या में प्रवीणता प्राप्‍त होते हैं । इसके साथ-साथ आपदाओं या घटनाओं का पूर्वाभास भी उन्‍हें होने लगता है । पशुओं में गाय, कछुआ, घोडा, बिल्‍ली, कुत्‍ता, बंदर, हाथी और कई प्रकार के पक्षी इस विद्या के जानकार होने के नाते भूकम्‍प आदि प्राकृतिक आपदाओं से अनेक बार मनुष्‍यों का जीवन बचा चुके हैं। ऐसे अनेकानेक वृतांत इतिहास में पन्‍नों में दर्ज हैं।  
टेलीपैथी भारतवासियों के लिए कोई खास बात या ज्ञान की नई विधा नहीं है । प्राचीन काल में इसके अनेक उदाहरण भारतीय दर्शनग्रंथों में उपलब्‍ध हैं। इतना ही नहीं वे पूर्णत: सहज, सरल एवं स्‍पष्‍ट भी हैं । वैदिक काल में ऋषि-मुनियों द्वारा इस विद्या का प्रयोग करना एक सामान्य-सी बात थी । नारदमुनि, आदि शंकराचार्य तथा अन्‍य बहुत से भारतीय गुरूओं से जुडे अनेक उदाहरण भारतीय दर्शनग्रंथों में उपलब्‍ध हैं ।  ऐसा ही उदाहरण रामायण में भी देखने को मिलता है। सीता की खोज करने का वचन देकर जब सुग्रीव अपना वचन निभाने में कुछ शिथिल पड जाता है, तब यह विचार राम के मन में खेद उत्पन्न करता है। ठीक उसी समय हनुमान के मन में भी वही भाव संप्रेषित हो जाता है और हनुमान तत्काल राम का विचार सुग्रीव तक पहुंचा देते हैं।
भक्‍त और भगवान अथवा गुरू और शिष्‍यों के मध्‍य वार्तालाप अनेक बार इस विद्या के द्वारा ही होता था । आध्‍यात्मिक गुरूओं की तो यह विद्या धरोवर रही है । क्रियायोग, शिवयोग, ध्‍यानयोग, राजयोग, भक्तियोग, प्रेमयोग में से कोई भी ऐसा नहीं जिसमें टेलीपैथी काम न करती हो । कई बार दूर-दृष्टि और टेलीपैथी दोनों एक से लगते हैं और दोनों में कोई भेद नहीं लगता परंतु ऐसा है नहीं । दूर-दृष्टि भविष्‍य में झांकने की विधा है जबकि टेलीपैथी परस्‍पर दूर बैठे दो व्‍यक्तियों में बिना किसी भैतिक साधन या खर्च के एक खास वैचारिक-मंत्रणा या बातचीत है ।
केवल जीवित व्‍यक्ति से ही नहीं, गर्भस्‍थ बालक से भी इस पद्धति के माध्‍यम से वार्ता की सकती है । स्‍वामी योगानन्‍द(05.01.1893-07.03.1952) ने काशी नामक एक बालक की मृत्‍यु के उपरांत उसका पुनर्जन्‍म होने से पूर्व ही उसका पता लगाने के लिए इसका उपयोग किया था तथा काशी के जन्‍म के बाद स्‍वयं जाकर उसे देखा भी था । इसका विवरण उन्‍होंने अपनी पुस्‍तक आटोबायग्राफी आफ ए योगी  के 28वें अघ्‍याय में किया है ।




दिनांक 23.05.2013, वैशाख शुक्‍ला त्रयोदशी               सुरेश कुमार कौशि‍क
    






Tuesday 14 May 2013


विवाह की वैदिक परम्‍परा और सप्‍तसदी


भारतवर्ष में मान्‍य आठ प्रकार की विवाह परम्‍पराओं में से श्रेष्‍ठ है वैदिक विवाह परम्‍परा और सप्तपदी उसका एक अभिन्न अंग है । इसके बिना प्रणयबंधन पूरा नहीं माना जाता । पाणिग्रहण संस्कार भले ही हो जाए लेकिन जब तक सप्तपदी पूरी नहीं होती तब तक वर और कन्या परस्‍पर पति-पत्नी नहीं बन सकते और न ही परणोत्‍सव सम्‍पन्‍न माना जा सकता है। अत: सप्‍तपदी विवाह-वेला में विशेष रुप से समझने योग्‍य कर्म है । वैदिक विवाह पद्धति के ऋग्वेद और अथर्ववेद प्रमुख आधार हैं । ऋग्वेद के दसवें मंडल का 85वां सूक्त  विवाह सूक्त है तथा अथर्ववेद के 14वें कांड का पहला सूक्त भी  विवाह सूक्त ही है। सुविज्ञजनों, ऋषियों, मुनियों तथा आचार्यों ने इन के आधार पर ही वैदिक विवाह पद्धति तैयार की है। वैदिक विवाह उभय-पक्ष की सहर्ष सहमति से, नाते-रिश्तेदारों, मित्रों और प्रियजनों की आनंदमयी उपस्थिति में, वरिष्‍ठजनों एवं गुरूजनों के मंगलकारी शुभ आशीर्वाद से सम्‍पन्‍न होता है और देवी-देवता इसके साक्षी माने जाते हैं। इसलिए इसे सर्वश्रेष्ठ माना गया है और यही कारण है कि सप्तपदी को सनातन धर्म में सात जन्मों  का बंधन भी माना गया है । 
अहंकार रहित होकर विनम्र भाव के साथ भरे-पूरे समाज के सम्‍मुख कन्या को बार-बार देवि शब्‍द से संबोधित करते हुए ( ऐसा संबोधन समस्‍त संसार में केवलमात्र भारतीय वैदिक परम्‍परा में ही उपलब्‍ध है) क्रमानुसार सात पदों में वर कहता है
1. हे देवि !  तुम संपत्ति तथा ऐश्वर्य, दैनिक खाद्य-पदार्थों और पेय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए प्रथम पग बढ़ाओसदा मेरे अनूकूल गति करने वाली ( चलने वाली) रहो, भगवान विष्णु तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे में हमारा सहारा बनें ।।
2. हे देवी ! तुम त्रिविध बल तथा पराक्रम की प्राप्ति के लिए दूसरा पग बढ़ाओ ।  सदा मेरे अनूकूल गति करने वाली ( चलने वाली) रहो । भगवान विष्णु तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे में हमारा सहारा बनें ।।    
3. हे देवि ! धन संपत्ति की वृद्धि के लिए तुम तीसरा पग बढ़ाओ, सदा मेरे अनूकूल गति करने वाली ( चलने वाली) रहो । भगवान विष्णु तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे में हमारा सहारा बनें ।।  
4. हे देवि ! तुम आरोग्य शरीर और  सुख-लाभवर्धक धन संपत्ति के भोग की शक्ति के लिए चौथा पग आगे बढ़ाओ और सदा मेरे अनुकूल गति करने वाली ( चलने वाली) रहो भगवान विष्णु तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे में हमारा सहारा बनें ।।   
5. हे देवि ! तुम  घर में पाले जाने वाले पांच पशुओं ( गाय, भैंस, बकरी, हाथी और घोड़ा आधुनिक संदर्भ में वाहन इत्‍यादि) के पालन और रक्षा के लिए पांचवा पग आगे बढ़ाओ और सदा मेरे अनुकूल गति करने वाली ( चलने वाली) रहो भगवान विष्णु तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे में हमारा सहारा बनें  ।।    
6. हे देवि !  तुम 6 ऋतुओं के अनुसार यज्ञ आदि और विभिन्न पर्व मनाने के लिए और ऋतुओं के अनुकूल खान-पान के लिए (अखाद्य खाद्यं न करने की भावना रखते हुए) छठा पग आगे बढ़ाओ और सदा मेरे अनुकूल गति करने वाली ( चलने वाली) रहो भगवान विष्णु तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे में हमारा सहारा बनें   ।।   
 7. हे देवि !  जीवन का सच्चा साथी बनने के लिए तुम  सातवां पग आगे बढ़ाओ और सदा मेरे अनुकूल गति करने वाली ( चलने वाली) रहो भगवान विष्णु तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे में हमारा सहारा बनें ।।                                          
               भारतीय विवाह पद्धति में अत्‍यंत सरल भाषा में इन सातों पदों का उल्‍लेख निम्‍नवत्  किया गया गया है
अन्नादिक धन पाने के हित, चरण उठा तू प्रथम प्रिये ।।
और  दूसरा बल पाने को,  जिससे जीवन सुखी जियें  ।।
-  धन पोषण को पाने के हित,  चरण तीसरा आगे धर  ।।
-  चौथा चरण बढ़ा  तू देवि,  सुख से अपने घर को भर ।।
-  पंचम चरण उठाने सेतू पशुओं की भी स्वामिनी बन ।।
-  छठा चरण ऋतुओं से प्रेरक  बनकर हर्षित कर दे मन ।।
-  और सातवां चरण मित्रता के हित आज उठाओ तुम ।।
   मेरा जीवन व्रत अपनाओ,  घर को स्वर्ग बनाओ तुम ।।

"यावत्कन्या न वामांगी तावत्कन्या कुमारिका" अर्थात जब तक कन्या वर के वामांग की अधिकारिणी नहीं होती उसे कुमारी ही कहा जाता है।  सप्तपदी पूरी होने के बाद कन्या को वर के वामांग में आने का निमंत्रण दिया जाता है ।
वामांगी बनने से पहले कन्या भी वर से सात वचन लेती है जो इस प्रकार हैं
 तीर्थ, व्रत, उद्यापन, यज्ञ, दान यदि मेरे साथ करोगे तो मैं तुम्हारे वाम अंग आऊंगी ।
-   यदि देवों का हव्य, पितृजनों को कव्य मुझे संग लेकर करोगे तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आऊंगी ।
-  परिजन, पशुधन का पालन-रक्षण का भार यदि आपको है स्वीकार तो मैं हूं वामांग में आने  को तैयार । - आय-व्यय, धन-धान्य में मुझ से यदि करोगे विचार, तो मैं वाम अंग में आने  को तैयार ।
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मंदिर, बाग -तड़ाग या कूप का कर निर्माण  पूजोगे, यदि  तो मुझे वामांगी निज जान ।
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 देश-विदेश में तुम क्रय विक्रय की जानकारी मुझे भी देते रहोगे तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आऊंगी ।
-  सुनो सातवीं शर्त यह, नहीं करोगे पर-नारी का संग, तो आऊंगी  निश्‍चय ही स्वामी आपके  वाम अंग ।

कन्या के इन सात वचनों के उत्तर में आश्‍वासन देते हुए वर कहता है- 
- तुम अपने चित्त को मेरे चित्त के अनूकूल करलो, मेरे कहे अनुसार चलना और मेरे धन को भोगना । पतिव्रता बन कर रहना, मैं भी तुम्हारे सारे वचन निभाऊंगा, तुम गृह स्वामिनी बनकर  सारे सुख भोगना ।

वर एक बार फिर कन्या से पुन: वचन लेता है
मेरी आज्ञा के बिना,  न सोमपान न उद्यान ।  पितृघर हो या कहीं और,  मुझको अपना मान ।।
जाओगी यदि तुम नहीं, बन कर मम अनूकूल । पतिव्रता बन न करो,  मुझ से कुछ   प्रतिकूल  ।।
वामांगी  तब ही तुम्हे मैं मानूंगा हे कल्याणी ।  इसमें ही हित अपना जानना,  नहीं तो है निश्चित हानि ।।

 सप्‍तपदी की  ये वचनबद्धता दोनों को विनम्र, धर्यशील, विश्‍वासनीय तथा संतुलित तो बनाती ही है, सुचारू गृहस्थी चलाने के लिए स्‍वाभाविक रूप से अनिवार्य एवं प्रेरणाप्रद भी है। इसके बाद दोनों परस्‍पर सखा बन जाते हैं । दोनों के द्वारा दिए गए वचनों के अनुपालन की शर्त को पुख्‍ता करने के लिए धुव्र तारे के दर्शन कराए जाते हैं । धुव्र तारा अपनी अटल भक्ति और दृढ़ निश्यच के लिए जाना जाता है ।
वधु को धुव्र तारा दिखाता हुआ वर कहता है तुम धुव्र तारे को देखो । वधु ध्रुव तारे को देख कर कहती है - जैसे ध्रुव तारा अपनी परिधि में स्थिर एवं तटस्‍थ रहता है वैसे ही मैं भी अपने पति के घर में कुल परम्‍परा के अनुसार स्थिर रहूंगी । उसके बाद वर वधु को अरूंधती तारा दिखा कर कहता है- हे वधु अरूंधती तारे को देखो । वधु अंरूधति तारे को देख कर कहती है- हे अरूंधती जिस तरह तू सदा वशिष्ठ(नत्रक्ष)  की परिचर्या में संलग्न रहती हो इसी प्रकार मैं भी  अपने पति की सेवा में संलग्न  रहूं, संतानवती होकर सौ वर्ष तक अपने पति के साथ सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करूं । तदुपरांत सबसे रोचक रस्म की बारी वर अपने दाएं हाथ से  वधु के हृदय को  स्पर्श करते हुए कहता हैं  - मैं तुम्हारे हृदय को अपने कर्मों के अनुकूल बनाता/करता हूं  मेरे चित्त के अनुकूल तुम्हारा चित्त हो(जाए)। मेरे कथन को एकाग्रचित होकर सुनना, प्रजा का पालन करने वाले  ब्रह्मा जी ने  तुम्हें मेरे  लिए  नियुक्त किया है। 
ऋग्वेद में वर्णित है कि वर एवं वधु दोनों विवाह के समय भगवान से समवेत स्‍वर में एक प्रार्थना करते हैं - "विश्व के सृजनहार( ब्रह्माजी), पालनहार(विष्णुजी), संहारकर्ता(आदिदेव महादेव) अपनी-अपनी शक्ति से और विवाह मंडप में विराजमान देवता और अन्य विद्वान और वरिष्‍ठगण अपने शुभ-आशीष से हमारी (वर-वधु की) आत्माओं और हृदयों का एकीकरण इस प्रकार कर दें जैसे दो नदियों अथवा नदी और समुद्र का जल परस्पर मिल कर एक हो जाता है और संगम होने के उपरांत विश्व की कोई शक्ति उन्हें  अलग नहीं कर सकती,  इसी प्रकार हम दोनों भी आत्मा और हृदय से एक हो जाएं ।" 
हमारी प्राचीन गौरवमयी संस्‍कृति में हज़ारों साल पहले  यानि वैदिक काल से ही नर-नारी को बराबरी का अधिकार था । विवाह का एक-एक वचन दोनों को बराबरी के दर्जे की बात करता है, बल्कि वर वधु को अपना सर्वस्व दे रहा है । समता पर आधारित इस मामले के कारण गृहस्थ धर्म को श्रेष्ठ आश्रम  माना गया है । विवाह केवल दो शरीरों का मिलन नहीं है। यह दो आत्माओं, दो परिवारों का समायोजन है । सनातन संस्कृति के महत्‍वपूर्ण 16 संस्कारों में यह विशिष्‍ट संस्कार है जिसे दो आत्माओं का आध्यात्मिक मिलन माना गया है ।
इस परम्‍परा में भले ही वर-कन्‍या दोनों को बराबरी का दर्जा दिया गया है परंतु वरण का अंतिम अधिकार कन्या को ही दिया गया है। स्‍वयंवर प्रथा का आधार यही मान्‍यता रही है । सप्‍तपदी के बाद वर-कन्‍या दोनों सखा बन जाते हैं। दुनिया की अन्‍य किसी भी विवाह पद्धति में ऐसा बराबर का रिश्ता नहीं है।



वैशाख शुक्‍ल प्रतिपदा, संवत 2070.
दिनांक 10.05.2013                   
पंडित सुरेश कुमार कौशिक